मैं ही हूँ श्रोता / सरोज कुमार
क्यों सुनाना चाहता हूँ मैं
इतने बहिरंगों को अंतरंग कविताएँ
वे सुनते हैं?
या करते हैं, सुनने का अभिनय?
पता नहीं!
पर मैं सुनाता हूँ!
और जब नहीं भी सुना पाता,
चाहता रहता हूँ सुनाना!
सभी को सुनाता हुआ
शायद मैं और केवल मैं
सुनता हूँ अपनी कविताएँ!
मैं ही हूँ अपनी कविता का
असली श्रोता
अगर मेरे पास ढेरों मोती होते
और मैं उन्हें अँधेरे में लुटाता
और अनुभव करता:
लोग उन्हें उत्साह से लूट रहे हैं
और सुबह होने पर
उन्हें वहीं पड़े पाता,
जहाँ पर बिखरे थे,
तब मैं क्या करता?
शायद बेमन से उन्हें समेटकर चला आता!
पर ये कविताएँ, कविताएँ हैं
मोतियों से भी कीमती
पर मोती नहीं!
नहीं भी सुनी गई
तो भी वे मुझे सुबह
अनसुनी पड़ी नहीं मिलेगी!
सही-सही ठिकानों के संधानों के भ्रम में
इतराते हुए
मैं महसूसूँगा
रचना की व्याप्ति!
कर्तव्य की सुसमाती!