मैं हुआ तेरा माजरा तू मिरा माजरा हुआ / शाहीन अब्बास
मैं हुआ तेरा माजरा तू मिरा माजरा हुआ
वक़्त यूँही गुज़र गया वक़्त के बाद क्या हुआ
कैसा गुज़िश्ता दिन था जो फिर से गुज़ारना पड़ा
धूप भी थी बची हुई साया भी था बचा हुआ
सुब्ह के साथ जाए कौन शाम को ले के आए कौन
रात का घर बसाए कौन है कोई जागता हुआ
एक मकाँ में कुछ हुआ बात सुनी न जा सकी
लोग गली गली से अब पूछ रहे हैं किया हुआ
पकड़ा गया था क्या करूँ शौक़ था ये गढ़ा भरूँ
सुब्ह तुलूअ का हुआ शाम ग़ुरूब का हुआ
सेहन में चारपाई पर बैठा हुआ हूँ देर से
लम्हों का मसअला हूँ और सदियों से हूँ मिला हुआ
ऐसे में भी अजब नहीं जी सकूँ और मर सकूँ
अपने ख़राब ओ ख़ूब का हैरती हूँ तो क्या हुआ
यूँ ही तो चुप नहीं हूँ मैं कोई तो बात है ज़रूर
ये जो क़ज़ा हुआ है ख़्वाब सज्दा था जो क़ज़ा हुआ
और मैं बाक़ी रह गया बातें बनाने के लिए
मेरी तरह का एक शख़्स तेरे लिए फ़ना हुआ