मैं हूँ पूर्णानन्द परम शुचि / हनुमानप्रसाद पोद्दार
मैं हूँ पूर्णानन्द परम शुचि, मैं हूँ नित्य सच्चिदानन्द।
मैं रसमय, रसराज, सदा रसपूर्ण, रसिकजन-मन-आनन्द॥
मुझ आनन्द-सिन्धु का पाकर सीकर एक अखिल संसार।
पाता रहता नित्य-निरन्तर विविध भाँति आनन्द अपार॥
मुझसे भी हो जिसमें निर्मल शत-शतगुना अधिक आनन्द।
एक वही, बस, दे सकता है मेरे मनको परमानन्द॥
ऐसी एक राधिका ही है, जो मुझको देती आह्लाद।
लेता रहता हूँ अतृप्त मैं मधुर निरन्तर उसका स्वाद॥
कोटि-कोटि कंदर्प-दर्पका करता मर्दन मेरा रूप।
सकल जगत्को मोहित, आप्यायित करता वह नित्य अनूप॥
वह मैं छविकी छवि राधा का सौन्दर्यामृत करके पान।
नहीं अघाता कभी, विकल दर्शन-हित रहते मेरे प्रान॥
मेरी मुरलीकी स्वर-लहरी त्रिभुवन को कर्षित करती।
राधा-वचन-सुधा की माधुरि अविरत मेरा मन हरती॥
मेरे तनकी मधुर गन्ध से अखिल विश्व होता सुरभित।
राधा-अंग-सुगन्ध हरण करती बरबस मेरा मन नित॥
अग-जगको है आदि सृष्टि से सरस बनाता मेरा रस।
राधा-अधर-सुधारस ने कर रक्खा मुझे सदा निज वश॥
यद्यपि मेरा स्पर्श कोटि शरदिन्दु-सदृश अति है शीतल।
राधा-अंग-स्पर्श-सुख मेरा तुरत बुझाता हृदयानल॥
मेरा सुख-कण पाकर सुख अनुभव करता जगका जन-जन।
राधाके गुण-रूप सुरक्षित रखते नित मेरा जीवन॥