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मैंने अब तक मति बेची है / केदारनाथ अग्रवाल
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मैंने
अब तक
मति बेची है
सात साल तक
कीलित रहकर
मन की मुक्त
प्रकृति बेची है
हर हफ़्ते के
सोमवार से शुक्रवार तक
मैंने अपने
हर सूरज को
चालिस रूपए में बेचा है
और शनीचर के सूरज को
उससे आधे में बेचा है
छुट्टी का इतवारी सूरज
बेच न पाया
मेरे कोई काम न आया
रचनाकाल: १८-०६-१९७०