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मैंने ऐसी दुनिया जानी / हरिवंशराय बच्चन
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मैंने ऐसी दुनिया जानी|
इस जगती मे रंगमंच पर
आऊँ मैं कैसे, क्या बनकर,
जाऊँ मैं कैसे, क्या बनकर-
सोचा, यत्न किया भी जी भर,
किंतु कराती नियति नटी है मुझसे बस मनमानी।
मैंने ऐसी दुनिया जानी|
आज मिले दो यही प्रणय है,
दो देहों में एक हृदय है,
एक प्राण है, एक श्वास है,
भूल गया मैं यह अभिनय है;
सबसे बढ़कर मेरे जीवन की थी यह नादानी।
मैंने ऐसी दुनिया जानी|
यह लो मेरा क्रीड़ास्थल है,
यह लो मेरा रंग-महल है,
यह लो अंतरहित मरुथल है,
ज्ञात नहीं क्या अगले पल है,
निश्चित पटाक्षेप की घटिका भी तो है अनजानी।
मैंने ऐसी दुनिया जानी|