मैंने क्या देखा जीवन में / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
मैंने यौवन बिकते देखा, छुप-छुप कर के बाज़ारों में,
देखा है सतीत्व को लुटते कुछ पैसों की झनकारों में।
गठबन्धन होते देखा है पतझड़ के सँग रँगरलियों का,
चौराहों पर सौदा होते देखा है कोमल कलियों का।
डूबी देखीं आह-कराहें चाँदी की इस झनन-झनन में।
मैंने क्या देखा जीवन में॥
मैंने देखे तरुणउ हृदय दो जो थे बिल्कुल भोले-भोले,
ऊँची नज़रों में चुप थे, कर नीची नजरें सकुचा बोले।
जात-पाँत कुछ ऊँच-नीच के टेढ़े-मेढ़े सम्बन्धों में,
मिल न सके वे खिल न सके वे जग के इन सब प्रतिबंधों में।
मानव को बंधते देखा है उसके ही समाज-बंधन में।
मैंने क्या देखा जीवन में॥
झोंपड़ियों में मैंने देखी कितनी ही सोई तकदीरें,
पड़ी न्याया के हाथों में देखी थीं कल मैंने जंजीरें।
लक्ष्मी के हाथों में देखीं निर्धनता की खिंची लकीरें,
और यहाँ कुछ देखीं पाउडर-लाली में लिपटी तस्वीरंे।
काले-काले मन देखे हैं लिपटे गोरे चन्द्र वदन में।
मैंने क्या देखा जीवन में॥
ऐसे दीपक भी देखे जिनमें जलने की चाह बहुत है,
जग को दे प्रकाश जाएँ, मन में उनके उत्साह बहुत है।
पर देखा ऐसे दीपों को जग यह तेल नहीं देता है,
सिसक-सिसक कर बूझ जाते तो उनको ठेल कहीं देता है।
पर मुसकान मधुर देखी है, छिपी हुई उस तप्त जलन में।
मैंने क्या देखा जीवन में॥
मानवता के कुछ देखे हैं लिपे-पुते मैंने खँडहर भी,
लज्जा जहाँ नग्न होती है देखे हैं कुछ ऐसे घर भी।
रूप जवानी के पीछे देखे हैं कितने ही दीवाने,
झुलसे पंख न अब तक जिनके देखे ऐसे भी परवाने।
आँसू बनते मोती देखे, चिर वियोग के बाद मिलन में।
मैंने क्या देखा जीवन में॥