भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैंने पाई पीर / कृष्ण मुरारी पहारिया
Kavita Kosh से
मैंने पाई पीर
जितना सुख था लूट ले गई
है मेले की भीर
सब अपनी गति भाग रहे हैं
स्वार्थ सम्हाले जाग रहे हैं
कनक गठरियाँ लाद रहे हैं
मैं रह गया फकीर
सफल हुआ सबका प्रयास है
पाया वैभव अनायास है
आनन-आनन विजय-हास है
मेरे नयनों नीर
04.07.1962