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मैंने मरु में केशर बोयी/ गुलाब खंडेलवाल

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मैंने मरु में केशर बोयी
नहीं एक भी अंकुर फूटा, सिकता लाख भिगोयी
 
निशिदिन नयन-नीर से सींचा
अंतर का कुल स्नेह उलीचा
गया मूल तो उसका नीचा
पर जग के हित खोयी
 
जो निर्गंध कनक के लोभी
उनको क्या, भू सुरभित हो भी
पर न दिखी जब रसिकों को भी
जागी पीड़ा सोयी
 
कितना भी पर आज उपेक्षित
है मुझमें विश्वास अपरिमित
इस सुगंध पर होगा मोहित
कभी कहीं तो कोई

मैंने मरु में केशर बोयी
नहीं एक भी अंकुर फूटा, सिकता लाख भिगोयी