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मैंने सोचा / रणजीत

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तुम आयी मेरे जीवन में
मैंने सोचा:
मेरे संचित सपनों को आकार मिलेगा
लेकिन तुम तो मिट्टी का भी आधार छीन कर चली गई।

यह ठीक कि मैं पहले भी काफ़ी निर्धन था
यह ठीक कि पहले भी अभिशापित जीवन था
पर तुमने नयन उठाए तो मैंने सोचा:
अब मेरे आँगन में सोना बिछ जाएगा
लेकिन तुम तो मेरी नयन-तिज़ौरी से भी
आँसू का भंडार छीन कर
मुझे और भी अधिक दीन कर चली गई।

यह ठीक कि पहले भी यह राह अँधेरी थी
यह ठीक यहाँ छाया भी रूठी मेरी थी
पर तुमने कदम बढ़ाए तो मैंने सोचा:
अब रात के माथे पर चन्दा इठलाएगा
लेकिन तुम तो आशा के जुगनू भी मेरे
झिलमिल करते हुए बीन कर
मुझे और भी अधिक हीन कर चली गई।

यह ठीक कि मेरा कंठ रुँधा था पहले भी
यह ठीक कि मेरा गीत बॅंधा था पहले भी
पर तुमने ओंठ छुवाये तो मैंने सोचा:
अब मेरे बोल मुक्त होकर मुस्काएँगे
लेकिन तुम तो शब्दों के शासन में मेरे
रहे सहे अधिकार छीन कर
मुझे और भी पराधीन कर चली गई।

तुम आई मेरे जीवन में
मैंने सोचा:
मेरे संचित सपनों को आकार मिलेगा
लेकिन तुम तो मिट्टी का भी आधार छीन कर चली गई।