भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैंने स्वयं बनाया है इन्हें / कुमार विमलेन्दु सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर बार यही होता है
तुम आते हो
शिकायते करते हो
और चले जाते हो
लेकिन क्या ठीक है
हर बार यही करना?
छोड़ जाना
मेरे चेहरे पर
तुम्हारी सिकुड़ चुकी
टेढ़ी, तिरछी उम्मीदों का नक्शा
अरे! लोग पूछते हैं
कई बार तो
सहानुभूति भरी प्रशंसा भी कर जाते हैं
और यह सब तभी करते हैं
जब मुझे
नहीं सुनना होता
यह सब
अगली बार जब आना
तो भूतकाल और
स्वर्णिम साम्भव्य की कथाएँ
मत लाना।
ये सब जो देखते हो ना
मेरे आस-पास
अबाध भाव धाराएँ
स्वतन्त्र हँसी
लगातार हार सकने की क्षमता
सब स्वयं अर्जित किया है मैंने
और हाँ... थक भी गया हूँ
थोड़ा रुक कर
रोकर, विश्राम करना चाहता हूँ
एक बार फिर अगर
तुमने मुझे सताया
तो मैं कह दूँगा सबसे
कि तुम निर्जीव चित्र हो
मेरे ही अतीत के
और तुम्हारे सारे रंग पराए हैं
अभी के श्वेत-श्याम
और सारे कम चटकीले रंग
मेरे हैं
मैंने स्वयं बनाया है इन्हें