मैथिली मुकरियाँ-2 / रूपम झा
जे नहि कनिको दया देखाबय
भीतर भीतर रोज कनाबय
जड़ि सँ जे कईलक कमजोर
कि सखि रोगी
नहि सूदिखोर।
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वैह हँसाबय वैह कनाबय
वैह उठाबय वैह गिराबय
अछि वैह जग मे अनमोल
कि सखि संपत्ति
नहि सखि बोल।
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चूमय चरण चलै अछि संग
करय मुदा नहि कहियो तंग
छोड़य सेवा घटने बुत्ता
की सखि नोकर
नहि सखि जुत्ता।
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जब आबय तब भीड़ बढ़ाबय
पैसा कौड़ी खर्च कराबय
डेगे डेग देखावय खेला
की जादूगर
नहि सखि मेला।
जँ आबय सुधि बुधि बिसराबय
लोकक ओ अधलाह बनाबय
छीनै ज्ञान बिगाड़ै भेष
की सखि संगति
नहीं आवेश।
.जे पहाड़कें तोड़ि गिराबय
मोनक भीतर दीप जराबर
जै बिनु शस्त्रक करै प्रहार
की सखि योगी
नहीं विचार।
बिहुसल जखन तखन बिहुसै छी
मुख देखतहि सभ किछु बिसरै छी
बसल अछि जेकरेमे प्राण
की सखि स्वामी
नहि संतान।
भीतर भीतर माहुर घोरय
विश्वासक बंधनकें तोड़ै
छूटै मनसँ मनकें नेह
की सखि झगड़ा
नहि संदेह।
कोयलकें जे गीत सिखाबय
फुलवारीमे फूल ओछाबय
जकरा सौंदर्यक नहि अंत
की सखि सुंदरि
नहि बसंत।
स्वामीकें सर्वस्व कहै छथि
संतानक सैदखन निरीखै छथि
सबकें सेवा जिनकर बैनि
की सखि नारी
नहि मैथिलानि।