न साहस कर सका पतझर
कि तलवों तक को भी चूमे
जमाना वह भी था मेरा कि-
जब लकदक चमन ओढ़ा
मैं अपने आँसुओं से भींग-
कर जब बर्फ बन बैठा
मेरी मजबूरियाँ देखो-
सितारों का कफन ओढ़ा
जो आयी रात काली तो-
उसे सपनों ने जा घेरा
खुली आँखों तो मैंने जब भी
ओढ़ा तो सुदिन ओढ़ा
झुका हूँ देव-देहरी पर
न इन्सानों की चौखट पर
चला हूँ जब भी सड़को पर
हजारों का नमन ओढ़ा
है अब तो गोद में सिर
फिर रही उँगली नियंता की
न अब मैंने जनम ओढ़ा
न अब मैंने मरण ओढ़ा