भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मोरपंख / स्वप्निल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


बचपन में क़िताबों में हम रखते थे मोरपंख

ताकि याद रहे पाठ

तेज़ रहे स्मरण-शक्ति

क्योंकि इसी स्मरण-शक्ति में हमें रखने थे सुरक्षित

अपने उल्लास भरे बचपन के दिन


मोर की पीठ से हमने चुराए थे पंख

कोई छीन ले गया मोरपंख

कि याद नहीं रहा कुछ भी

बचपन का वह पुराना प्राइमरी स्कूल

बूढ़े करियाधर पंडितजी

आम का छतनार पेड़ जिसके नीचे लगती थी कक्षा

बेंत लेकर टहलते थे पंडित जी

उनकी टन्नायी मोछ से लगता था डर


पंख छीन कर किसी ने फेंक दिया गाँव के सीवान से

बहुत दूर

आज याद आता है कि

कहीं, बचपन की धूल भरी गलियों में तो नहीं हेरा गए

मोर पंख

उम्र की इतनी ऊँची दहलीज लाँघ कर, मैं जाऊँगा

मोरपंख ढूंढने

गाँव-गाँव जंगल-जंगल


मेरी यादों में अब भी नाचते हैं, रंग-बिरंगे मोर पंख

फेंकते हुए हरी रोशनी बिल्कुल मोर पंख की तरह

हरे तरोताज़ा थे हमारे दिन


जिस दिन मुझे मिल जाएगा, मोर-पंख

मुझे बचपन को खोलने की चाभी मिल जाएगी


मैं फ़िल्म की तरह देखूँगा नाचते-भागते

उजले बेफ़िक्र अपने दिन