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मोह-बंध / अज्ञेय
Kavita Kosh से
मोह-बन्ध हम दोनों
एक बार जो मिले रहे
फिर मिले, इसे क्या कहूँ :
कि दुनिया इतनी छोटी है-
या इतनी बड़ी?
हम में जो कौंध गयी थी
एक बार पहचान, उसी में
आज जुड़ी जो नयी कड़ी-
क्या कहूँ इसे :
इतिहास दुबारा घटित नहीं होता, या वह है
पुनर्घटित की एक लड़ी?
बिछुड़ जाएँगे फिर हम, फिर भी
हार आज को नहीं गिनेंगे,
इस को अभी, आज क्या कहूँ :
कि जीवन एक मोह है जो साहस को हर लेता है,
या कि एक साहस, जो काट रहा है
बन्ध मोह के घड़ी-घड़ी?
दिल्ली-कलकत्ता-कटक (रेल में), 10-12 अप्रैल, 1957