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मोहन हम भी तुमसे रूठे! / बिन्दु जी
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मोहन हम भी तुमसे रूठे!
जान गए हम छली प्रपंची हो कपटी और झूठे,
पहले शरण बुलाया हमको दे-देकर लोभ अनूठे,
अब इस बार दरस देने में दिखलाए अँगूठे,
सुनते हैं देते थे सबको तब सुख भर-भर मूठे,
हमने शत-शत ‘बिन्दु’ भए दिए न टुकड़े जूठे॥