मोहम्मद रफी / विजय कुमार
कौन जो इन चिथडों में दरवाज़ों के बाहर से गुज़रता है
कुछ पुकारता
एक पुरानी टॉकीज़ थी वहां जिसके टिन के छप्परों पर हवायें नाचती थी
उस गली में हाज़ी पीर की दरगाह के बाहर थके हुए लोग थे
मेहनत के बाद की नींद
और झुका हुआ आसमान
श्वेत श्याम दुनिया में हवा अब भी पकडती है
अंधेरे में खडे पेडों के चीत्कार सब दिशाओं से
उभरती मिट मिट जाती
धुंधली धुंधली सी कुछ खुमारियां
एक आवाज़ जिसमें बस्तियों के बसने और उजडने की खबरें थीं और तिलस्मी फंदों में बीते वे खाली खाली दिन
अंतिम शो के बाद हम निकले
तो बाहर बारिश थी
मैं तुम्हारी आवाज़ के साथ साथ खूब भीगा था
भीतर तक तर बतर -
ये दिल जब भी उदास होता है
जाने कौन आसपास होता है
फुटपाथों पर खडे हम गीली सडकें और रतजगे
और खाली ज़ेबों में हमारे हाथ
तेज़ भागते ट्रेफिक में अभी अभी किस की शक्ल देखी थी
वह जिसने देखकर मुंह फेर लिया
वे सारी उपेक्षायें हमारी थीं
वे सारे अपमान भी हमारे थे
ज़र्रे ज़र्रे पर लिखे इस तरह लिखे हुए थे
हमारे ही होने के सबूत
कि ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है
टूटे हुए पुलों से हम उतरे
तो दूर तक चलते ही चले आये
पर अब वहां वे पुरानी बस्तियां नहीं है
वह मॉडेल टकीज़ भी नहीं
बस एक पुरानी रिमझिम है
बंद कारखानों के फाटकों और मिलों की बुझी चिमनियों पर
एक बुलडोज़र ज़मीन को समतल करता हुआ
खत्म हुए वे सब रैन बसेरे अपने
नहीं कोई रिहाइश भी नहीं
पर ये सांस चलती है
हम बारिश की पुरानी रात में खुद से ही बातें करते रहते हैं सडकों पर देर तक