भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मौत / महावीर उत्तरांचली
Kavita Kosh से
मौत तुम भी क्या खूब खेल खेलती हो?
जब हमारे दिल में जीने की चाह होती है
तुम आ टपकती हो; तमाशा करती मजा लेती हो ।
जब हम मरना चाहते हैं—
तुम ऊबा देने वाली प्रतीक्षा करवाती हो!
मानो सदियों तक आओगी ही नहीं ।
आज भी तुम गलत समय में आई हो
जब मैं ख्याति के शिखर से थोडा-सा दूर हूँ ।
जबकि मैं जानता हूँ
तुम बेवक्त नहीं आती? वक्त की पाबन्द हो
आग़ाज़ के दिन ही हमारा अंजाम भी तय हो चुका है
मगर क्या आज मेरे वास्ते
तुम्हारी वो घड़ी थोडा आगे नहीं खिसक सकती
मैं जानता हूँ तुम्हारी गोद में
असीम सुख है; महाशांति है
कभी न टूटने वाली निद्रा है
और है...
कभी न ख़त्म होने वाली ख़ामोशी....!