भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मौत : दो / प्रफुल्ल कुमार परवेज़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह रोज़ कमाता
रोज़ खाता

रोज़ लुटता उसका अधिकांश हिस्सा
बचे-खुचे हिस्से से
आधा—अधूरा भरता
परिवार का पेट

वह आहिस्ता-आहिस्ता
रोज़ मर रहा था
और आज मर ही गया
शहर बेख़बर है
कि वह मर गया