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मौसम की तब्दीली कहिये या पतझड़ का बहाना था / अंबर खरबंदा

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 मौसम की तब्दीली कहिये या पतझड़ का बहाना था
पेड़ को तो बस पीले पत्तों से छुटकारा पाना था

तेरी सूरत पढ़ कर मुझको सोच लिया करते थे लोग
वो भी था इक वक़्त कभी ऐसा भी एक ज़माना था

रेशा-रेशा होकर अब बिखरी है मेरे आँगन में
रिश्तों की वो चादर जिसका वो ताना, मैं बाना था

बादल, बरखा, जाम, सुराही, उनकी यादें, तन्हाई
तुझको तो ऐ मेरी तौबा! शाम ढले मर जाना था

उन गलियों में भी अब तो बेगानेपन के डेरे हैं
जिन गलियों में ‘अंबर’ जी अक्सर आना जाना था