भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मौसम हो गया फागुनी / यश मालवीय
Kavita Kosh से
सपने मैरून हुये
शाम बैंजनी
बोलते धुधलके में
छुपी रोशनी
कौंध रहे बादल की
छांव के बसेरे
बडा कठिन अपने से
कोई मुंह फेरे
हर जुगनू में चमकी
धूप की कनी
नाव संग डोल रहा
नदी का किनारा
जाने फिर किसने
उस ओर से पुकारा
पल भर में मौसम
हो गया फागुनी
चाय जरा छलकी
मन और और छलका
इस जरा छलकने से
समय हुआ हलका
होंठो पर अभी
हर पंक्ति गुनगुनी
सहसा ही हवा चली
फूल फूल जागा
साँसों में महक उठा
साँसों का धागा
मुश्किल से बिगड़ी सी
बात है बनी।