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यक्ष-प्रश्न ! / विमल राजस्थानी

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पूछता हूँ यक्ष प्रश्न, उत्तर दे सकोगे क्या
कमरों में कैद किया, जिनने वे कौन हैं ?
लेखक निरूत्तर हैं, कवि भी तो मौन हैं
जनता है डरी-डरी, आतंक भरी-भरी
घुटने टिके हैं और लगती है मरी-मरी
शोषकों से आतंकित, कमरे में बंद हूँ
गीत तो कभी का मरा, रूक्ष रबर छंद हूँ
उड़ने को व्याकुल हूँ, ‘पर’ दे सकोगे क्या ?
‘प्रासंगिकताएँ’ रक्त-स्नात हो रहीं
बमों के धमाके आज आम बात हो रही
कनपटियाँ झेल रहीं पिस्टल का ठंडापन
बेकारी झेल रहा दिशाहीन नवयौवन
लूट रहा राज्य दशानन बीस हाथों से
चरण-धूलि लगा रहे चाटुकार माथों से

चमचों की कमी नहीं
उनके घर गमी नहीं
गम के तो मारे हम
बुझे-बुझे तारे हम
हड्डियाँ ही शेष बचीं
निचुड़ गया
सब दम-खम
हत्यारे लूट रहे
सरे आम फूट रहे
बम ही बम
बम ही बम

जीने की इच्छाएँ क्षीणातिक्षीण हुईं
करोगे उपकार, थोड़ा ज़हर दे सकोगे क्या ?
गौतम, महावीर ग्रन्थों में गुँथे पड़े
चैतरफा हत्यारे शासक के ‘क्लोन’ खड़े
हाय रे बिहार ! तुझे झारखण्ड खा गया
अपहरणों का उद्योग यहाँ छा गया
पता नहीं कंस को कन्हैया कब मारेगा
लगता है कान्हा ही कंसों से हारेगा
‘आत्मघाती बम’ ही छुटकारा दिला पायेंगे
मुर्दों में प्राण फूँक वे ही जिला पायेंगे
चीख रही बलिवेदी, सर दे सकोगे क्या ?
पूछ रहा यक्ष-प्रश्न, उत्तर दे सकोगे क्या ?