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यह जो हरा है (कविता) / प्रयाग शुक्ल

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यह जो फूटा पड़ता है
हरा, पत्तों से--
धूप के आर-पार
वही फूट आता है
किसी और जगह,
किसी और सुबह ।

भरोसा है तो
इसी हरे का ।