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यह तुम्हारा उदर / ज्ञानेन्द्रपति
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यह तुम्हारा उदर ब्रह्माण्ड हो गया है।
इसमें क्या है ? एक बन रहा शिशु-भर ?
झिल्ली में लिपटी मांस पहनती चेतना। बस ?
कितनी फैलती जा रही है परिधि तुम्हारे उदर की
तुम क्या जानो
कि अंतरिक्ष तक चली गयी है यह विरूप गोलाई और ये
पेड़-पौधे, मकान, सड़कें, मैं, यह पोल, वह कुत्ता, उछलता वह मेढक
रँभाती गाय, बाड़ कतरता माली, क्षितिज पर का सूरज
सब उसके अंदर चले गये हैं
और तुम भी