भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह प्यार है / कमलकांत सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात सागर, प्रीति गागर से करे, मनुहार है।
प्राण होकर पर्त से गलते रहें, यह प्यार है॥

तप रही है अब धरा, गल रहा है आस्मां
वेदना से उरभरा, जल रहा है हर समां।
नीड़ सब झुलसे हुए, द्वार पर छहरे धुँए
नेह का आंचल गरम, चल रहा है कारवां।

सांवले तन याद में हिम से घुलें, बेकार है।
झील होकर प्यास से पहले रहें, यह प्यार है॥

निशि सदा ही चुप रही, टिमटिमाये दीप थे
चेतना भी जड़ रही, दिन रहे हैं ऊंघते।
आज कल बहरे हुये, आँख पर पहरे हुये
चांद का काजल तरल, पल घड़ी को पूजते।

दर्द भी हर सांस में कण से जुड़ें, धिक्कार है।
गीत होकर छंद में ढलते रहें, यह प्यार है॥

मुस्कराना थम रहा, चुप हुई है दास्तां
भावना भी मौन है, लुट गई है कामना।
देखकर गहरे कुँये, तीर पर ठहरे हुये
लाज का बादल "कमल" ओढ़ती हैं बिजलियाँ।

आदमी संसार में शव से रहें, यह हार है।
ज्योति होकर दीप में जलते रहें, यह प्यार है॥