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यह भी क्या बन्धन ही है / अज्ञेय

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  यह भी क्या बन्धन ही है?

ध्येय मान जिस को अपनाया मुक्त-कंठ से जिस को गाया
समझा जिस को जय-हुंकार, पराजय का क्रन्दन ही है?
अरमानों के दीप्त सितारे जिस में प्रतिपल अनगिन बारे

मेरे स्वप्नों का प्रशस्त-पथ आशाहीन गगन ही है?
तुझे देख जो अन्तर रोया, कम्पित विह्वलता में खोया,
अटल मिलन की ज्योति न हो कर पीड़ा का स्पन्दन ही है?
यह भी क्या बन्धन ही है?

1934