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यह मन भयो कहा कछु बौरो / स्वामी सनातनदेव

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राग खम्भावती, कहरवा 27.6.1974

यह मन भयो कहा कछु बौरो।
जानत है कछु सार न जगमें, तदपि जात उत दौरो॥
मैं समुझाय थक्यौ मनमोहन! तदपि सुनत नहिं सौरो।
पुनि-पुनि इत-उत ही भटकत है, टिकत नाहिं इक ठौरो॥1॥
है उन्मत्त सुरापी<ref>शराबी</ref> सो खल, मानत कछु न निहोरो।
तुमहिं छाँड़ि चाहत विषयनकों, मूढ कहों वा बौरो॥2॥
अपनो बल कछु काम न कीन्हों, तुव करुनापे जोरो।
चरन-सरन अब तकी तिहारी, तुमसों यही निहोरो॥3॥
ऐसो करहु न रहै याहि अब कोउ दूसरी ठौरो।
बनै तिहारे पद-पंकजको अति लोलुप यह भौंरो॥4॥
गुनगुनाय गुनगन नित धुनिसों, सुनै न दूजो सोरो।
रुचि-रुचि पिये निरन्तर प्रीतम! तुव रति-रस सिरमौरो॥5॥

शब्दार्थ
<references/>