भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह वही दुनिया थी ! / विनय सौरभ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

{{KKCatK avita}}


खूँटी पर टँगा कुर्ता
फकीर को दे दिया गया !

तो तय था-
पिता चले गए थे
माटी हो चुके थे

लेकिन दुनिया वैसी की वैसी रही !
विस्मय से भर गए हम !

जो रोज शाम चाय पर हमारी बैठक में आते थे, हमारे घर में कहकहों का संसार रचने वाले पिता के मित्र न जाने कहाँ बिला गए !

पिता के कुछ सरकारी पैसे थे, उनकी निकासी के वास्ते उनके दफ्तर में जाना पड़ा हमें और बार-बार जाना पड़ा !

आखिरकार रो दिए हम !
वहाँ हवा भी रुपए माँगती थी काम के एवज में !

यह असली दु​​निया थी
भयावह विवरणों से भरी !
भयाक्रांत कर देने वाले अनुभवों वाली यह वही दुनिया थी, जिसके बारे में पिता अक्सर कहते थे :

 असली दुनिया में पैर रखोगे तब जानोगे !
​​​​