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यह सन्नाटा / विश्वनाथप्रसाद तिवारी
Kavita Kosh से
कैसे टूटेगा यह सन्नाटा
जो एक भयानक तूफ़ान के बाद
हमारे चेहरों पर उतर आया है।
सुरंगों में घिर गए हैं सहयात्री
ख़ामोश हो गई हैं मन्दिरों की घंटियाँ
एक हाथी मरा पड़ा है न्यायालय के कठघरे में
बाहर कोई पत्ता तक नहीं हिलता।
केवल अन्धेरा है
जो आहिस्ते-आहिस्ते
फैलता जा रहा है कमरे में
और बाहर रेतीले तट पर
जहाँ शिथिल हो गया है सागर
और हवाओं में चीख़ने की ताक़त नहीं रह गई है।