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यहाँ घाट पर / कुमार रवींद्र

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यहाँ घाट पर
उनको जल दो
जो अब नहीं रहे
 
यानी उन
रिश्तों-नातों को
जो थे नेह-बँधे
साधू के इकतारे को
जिस पर सुर रहे सधे
 
संवादों को
कनखी के
जो औघट घाट बहे
 
झील-पार के केसरवन को
जो कल राख हुआ
आसमान को
जिसमें कल था
उड़ता दिखा सुआ
 
उन दुक्खों को
जो हैं हँसकर
हमने साथ सहे
 
साँसों-साँसों
इन्द्रधनुष होती कविताओं को
मौन ढलीं रेती पर
उन आकुल संध्याओं की
 
जल दो
उन अर्थों को भी
जो हमने नहीं कहे