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यहाँ भी थी एक नदी / दिनेश दास

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यहाँ भी एक नदी थी टलमल करती
वह नदी जाने कब एक डुबकी लगाकर
उतर गई अतल पाताल में ।
इसीलिए अब यहाँ हैं --
रेत, रेतीले तट, रेत के पहाड़
कहाँ है पानी की आहट!
हवा सिर्फ़ हाहाकार करती है,
रेत की गहराई में नहीं हैं किसी अन्तःसलिला के इशारे!

जीवन
रेत का ढेर, भटकता रहता है अकसर गोल वृत्त की तरह।
इसका क्या कोई मतलब है? कोई मतलब हो सकता है?
फिर भी वे रेतीले तट नए पानी का स्वप्न देखते हैं,
अब भी प्रतीक्षा करते हैं -- यह भी एक अनोखे विस्मय की बात है!
यहाँ सिर्फ़ रेत है दिगन्त तक --
अचानक आकर नींद तोड़नेवाली नदी, कौन हो तुम
पानी से जैसे रची है तुम्हारी देह ....अपरिचित,
फिर भी लगता है तुम्हें जाने कब से जानता हूँ!

कभी यहाँ एक नदी हुआ करती थी !
वह नदी जाने कब एक डुबकी लगाकर
नीचे उतर गई थी कहीं!
कौन हो तुम, हरी नदी
तुम भी क्या यहाँ डूब जाओगी ?

मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी