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यही इंसाफ़ है / बीरेन्द्र कुमार महतो
Kavita Kosh से
मैं बनने वाली थी
मंदिर की शोभा,
मगर,
बना दिया देख
मुझे वैश्यशाला में
मदिरा का प्याला,
हे प्रभु !
क्यों बनाया तुने मुझे
ऐसा अबला जनाना..?
माँ-बहनों की इज़्ज़त को
पहचानते नहीं,
न जाने मुझ जैसी
कितनी मासूमों का घर
उजाड़ेंगे,
तोड़-मरोड़कर
कूड़ेदान में डालेंगे वे,
तनिक, उनसे पूछो,
क्या ज़िन्दगी का यही इंसाफ़ है...?
मूल नागपुरी से अनुवाद : स्वयं कवि द्वारा