यही तो अपनी हिन्दी है / अमर सिंह रमण
जब तक सूर्योदय न हुआ था, तभी तक दीप की शोभा थी।
जब तक हिन्दी ना पनपी थी, तब तक कईं भाषाएँ थीं।
जब से इसको पाया है, तभी से अपनापन आया है।
भारतीय संस्कृति को इसने जन-जन तक पहुँचाया है।
गंगा माँ की शोभा जैसा जोश ले आगे बढ़ी है यह।
सब बहनों से बड़ी भी है, सब से आगे खड़ी भी है।
सब भाषा की बिन्दी है, यही तो अपनी हिन्दी है।।
घर के बाहर से हाट बाजार करते हैं सब इसको प्यार।
राग द्वेष को इसने मिटाया, सभी जाति को गले लगाया।
रात में दिन का काम है करती, चित्त में ज्ञान प्रकाश है भरती।
घर बैठे है सैर कराती, बिना चान के चलती-फिरती।
राम रहीम करीम हो कोई, वेद कुरान बाइबल हो कई जोई।
झगड़ा मजहब कितने हों किन्तु भाषा सभी की हिन्दी है।
सब भाषा की बिन्दी है, यही तो अपनी हिन्दी है।।
भारत से उड़कर सूरीनाम कें आई है तू बडे़ काम में।
हृदय अपना हुआ पवित्तर, जब से सीखा तुम को पढ़-पढ़।
तुझ से ही मुझे ज्ञान मिला, ऐसा अमृत पिला दिया।
अब तू ही मेरी साकी है, इसी नशे में रहना चाहूँ,
जब तक जीवन बाकी है।
मान दान और वेद-पुरान, सगरो होता तेरा आख्यान
ऋषि-मुनि जप-जाग निदान, सबके तू ही तन का प्राण।
तू ध्यानमग्न की बिन्दी है, यही तो अपनी हिन्दी है।।