याँ / मृत्युंजय
अधटूटे आईने की किरचें बिखरी हैं 
सहमी-सहमी पृथ्वी डर से काँप रही है 
भाप उठ रही है अन्तर के अतल कुण्ड से 
हंसते हैं डर, हर टुकड़े में अलग-अलग हो 
पिण्डलियों में दफ़्न दर्द बढ़ता जाता है 
उबल रही है त्वचा भाप से उघड़ रही है 
और हवाओं में चिथड़े हैं हर शोख़ी के
  
सांस-सांस भीतर जाती है दुनिया थोड़ी 
काट-काट लाती है बाकी खालिस जीवन 
और ख़ुदकुशी के रस्ते पर सधे क़दम से  
जाता जाता जाता जाता है पागलपन 
मेरे मुतरिब छू ले मुझको नज़रों भरकर 
इस मुरदों के टीले में ही घर है मेरा 
ख़ाक जबीं पर निशानात होंगे लहरों के 
सूना सुर्ख़ रास्ता ऐसे खो जाएगा  
ठिठुरकर काँपती है रात 
बबूल-फूलों पर नींद से उलझते हैं जुगुनू 
कटे नाख़ून-सा कोरदार है द्वितीया का चान्द 
फन काढ़े चौकन्ना सा सन्नाटा है 
हवाओं के घोड़े पिछले पैरों पर स्तब्ध खड़े हैं 
टूटी धुरी वाला समय का रथ रुक गया है 
कलाई के इन्तज़ार में ठहरा हुआ है पल 
सम्भावना के प्रेत उलटे पैर स्थिर हैं  
रोशन अन्धेरों में गूँजी चीख़ भरी चुप लाओ 
आओ दिल में खँजर मारो जल्दी क़दम बढ़ाओ 
स्याह सुबह की थकी हवा में दर्द पिरोओ जाओ 
स्वादहीन जीभों की खातिर थोड़ा नमक मँगाओ 
रँग गन्ध सब ग़ायब सूनापन लहराया 
फिर से वही लबादा मैंने खोया-पाया 
जिसके भीतर हवा बन्द है दिल ज़ख़्मी है 
देखो मेरा क़ातिल मुझको याँ ले आया
	
	