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यात्री / संजीव कुमार
Kavita Kosh से
मेज पर रखा कप
चमक रहा है, उसमें
कामना तृप्ति की हो रही है
प्रतिबिम्बित,
अभी अभी का तो है वह
चुम्बित।
मृदु ओंष्ठयुग्म ने
छुआ था उसे कोमलता से,
तृप्ति की हल्की सांस ने
सहलाया था उसे सहजता से,
आग्रह की उष्णता से तप्त
उसकी देह चमक रही थी
आतिथ्य के गर्व से,
जो अभी भी संचित है उसमें
वैसा का वैसा ही
मेज पर रखा है कप।
मेजों पर ही रखे जाते हैं कप
भरी जाती है उनमें
गर्मजोशी आतिथ्य की
भाप सत्कार की,
सोहते हैं मेजो पर ही कप,
मेजों से ही उठाकर ले जाये जाते हैं
कान पकड़कर,
धोने पोंछने और सुखाये जाने के लिए
चमकदार कप,
सभी चमकदार चीजों की तरह
उत्थान पतन के पथ का
अनवरत यात्री है कप।