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याद: एक अनुभूति (दो) / माया मृग
Kavita Kosh से
शाम
गो-अकेली, उदास
भोली, गुड़िया सी !
पनियायी आँखों से
ताकती रहती-आकाश।
वह खोयी-खोयी सी
खोने लगती
जंगल की अनदेखी पगडण्डियों में।
अचानक
किसी ‘पल’ की ओट से
घात लगाकर कूदता
अतीत का तेंदुआ
और-आँखों ही आँखों में
पी जाता
उसकी नरमाई सांसें।
हर सुबह
सूरज -
बीनता-सूखी लकड़ियां
तेरे-मेरे-उसके
घर से।