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यादे-ग़ज़ालचश्माँ, ज़िक्रे-समन्इ’ज़ाराँ / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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यादे-ग़ज़ालचश्मां, ज़िक्रे-समनइज़ारां
जब चाहा कर लिया है कुंजे-क़फ़स बहारां
आंखों में दर्दमंदी, होंठों पे उज़्रख़्वाही
जानाना-वार आई शामे-फ़िराक़े-यारां
नामूसे-जानो-दिल की बाज़ी लगी थी वरना
आसां न थी कुछ ऐसी राहे-वफाशआरां
मुज़रिम हो ख़्वाह कोई, रहता है नासेहों में
रू-ए-सुख़न हमेशा सू-ए-जिगरफ़िगारां
है अब भी वक़्त ज़ाहिद, तरमीमे-ज़ुहद कर ले
सू-ए-हरम चला है अंबोहे-बादाख़्वारां
शायद क़रीब पहुंची सुबहे-विसाल हमदम
मौजे-सबा लिये है ख़ुशबू-ए-खुशकनारां
है अपनी किश्ते-वीरां सरसब्ज़ इस यक़ीं से
आयेंगे इस तरफ़ भी इक रोज़ अब्रो-बारां
आयेगी फ़ैज़ इक दिन बादे-बहार लेकर
तस्लीमे-मयफ़रोशां, पैग़ामे-मयगुसारां