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यायावर मन / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
धरती जिसका खाट-बिछौना, झूला जिसका नभ है
कौन कुसुम यह ? रूप अनोखा, रस भी, जैसी गंध
ऋतुओं के अनुशासन का ना माने कोई बंध
मरु हो, शैल, विपिन, वन, निर्झर; टिका कहाँ यह कब है ।
प्राणों में भर कर समीर को अन्तरिक्ष में घूमे
ओले का ले भार दलों पर कीचड़ में सन जाए
कभी मरण, तो कभी अमरता इसको क्यों ललचाए
शांत सरोवर पर लहराता, काटों को फिर चूमे ।
किसके सिर पर चढ़ने को यह इतना ऊपर-ऊपर
किसके चरणों पर पड़ने को इतना झुका-झुका है
रण के रथ में बंधा अश्व है, फिर भी रुका हुआ है
अभी-अभी कोठी भर था तो और अभी चुटकी भर ।
यह प्रसून तो रूप-बिम्ब ही मेरे निर्मल मन का
धरती का सेवक है लेकिन मालिक नील गगन का ।