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यार को बे-हिजाब देखा हूँ / 'सिराज' औरंगाबादी
Kavita Kosh से
यार को बे-हिजाब देखा हूँ
मैं समझता हूँ ख़्वाब देखा हूँ
ये अजब है कि दिन कूँ तारीकी
रात कूँ आफ़्ताब देखा हूँ
नुस्ख़ा-ए-हुस्न में तिर क़द कूँ
मिसरा-ए-इंतिख़ाब देखा हूँ
किस सती अब उम्मीद-ए-लुत्फ़ रखूँ
तुझ निगह सीं इताब देखा हूँ
अब हुआ सब सीं फ़ारीग़-उत-तहसील
बे-ख़ुदी की किताब देखा हूँ
लश्कर-ए-इश्क़ जब सीं आया है
मुल्क-ए-दिल कूँ ख़राब देखा हूँ
मजलिस-ए-चश्म-ए-मस्त साक़ी में
दौर-ए-जाम-ए-शराब देखा हूँ
ऐ ‘सिराज’ आतिश-ए-मोहब्बत में
दिल कूँ अपने कबाब देखा हूँ