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युग-कवि / विहान / महेन्द्र भटनागर
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विश्व के उस पार की, कवि कौन है जो आज गाता ?
सुन न पड़ती अब अलंकृत रीति-कवि की और वाणी,
मिट चुकी बीते युगों की ईश की कल्पित कहानी,
विश्व ने नव-भावनाओं से नया जीवन रचा है ;
अब विगत युग-भव्यता की, कवि दुहाई दे न पाता !
आज नव-नव गीत मेरे, आज नव-नव गीत जग के
आज नवयुग, आज गतियुग आज हम बंदी न अग के
लुप्त होती हैं व्यथाएँ और खिलते फूल नव-नव
अब न जीवन में अधूरे छोड़ जग अरमान जाता !
झूठ, मिथ्या-कल्पनाओं का नहीं है अब ठिकाना
मिट चुकी हैं पूर्ण जड़ से, अब न उनका है बहाना,
टिक सकीं बातें अरे क्या खोखलीं जो सब तरफ़ से
आज कण-कण ढह चुका है, कौन जो उसको उठाता ?
रचनाकाल: 1944