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युग-परिवर्तन / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
नये प्रभात की प्रथम किरण
विलोक मुसकरा रहा गगन !
इधर-उधर सभी जगह
नवीन ज़िन्दगी के फूल खिल गये,
सिहर-सिहर कि झूम-झूम
एक दूसरे को चूम-चूम मिल गये !
धूल बन गया पहाड़ अंधकार का,
अटूट वेग है ज़मीन पर
नयी बयार का !
कि साथ-साथ उठ रहे चरण,
कि साथ-साथ गिर रहे चरण !
नये प्रभात की नयी बहार बीच
जगमगा उठा गगन !
कि झिलमिला उठा गगन !
उर्वरा धरा सुहाग पा गयी,
शरीर में हरी निखार आ गयी !
निहार लो उभार रूप का
पड़ा है सिर्फ़
रेशमी महीन आवरण
अतेज घूप का !
बिजलियों ने कर लिया शयन,
हहरती आँधियाँ पड़ीं शरण,
विकास का सशक्त काफ़िला नवीन
कर रहा सुदृढ़ भवन-सृजन !
बेशरम रुके खड़े हैं राह पर,
कि कापुरुष के कंठ से
निकल रहा कराह-स्वर,
सभीत दुर्बलों के बंद हैं नयन,
व मोच खा गये चरण !
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