युग की छाती पर कदम रख / हरिवंश प्रभात
युग की छाती पर कदम रख, जन्म लेता मुक्तसर हूँ
मैं तुम्हारे भाल पर अंकित एक हस्ताक्षर हूँ।
फूट पड़ता हूँ शिखर से, ज़िंदगी का स्रोत बनकर
मैं निकल पड़ता हूँ मन में, जोश का प्रतिरूप बनकर,
कर रहा सिंचित धरा पत्थर का सीना चीर कर
छोड़ पीछे वक्त की रफ्तार को मैं अग्रसर हूँ।
मैं मिलाता सांध्य को प्रभात की रश्मि कला से
जोड़ता हूँ गगन को गरिमामयी इस मेखला से,
कर रहा संपूर्ण शक्ति से उड़ाने नील नभ में
ढूँढ लेता ठौर अपना प्राण पन से में प्रखर हूँ।
अपनी ऊर्जा से बनायी समय की तस्वीर को
देख लेना तुम उगाता बीज की तकदीर को,
मैं अडिग विश्वास का तरुवर मनोरम झूमता
तेरे सुख सौभाग्य की एक रागिनी का सप्तस्वर हूँ।
तेरी एक आवाज़ के पहले ही तुमसे आ मिलूँगा
चाह चलने की हो अंतिम रास्ते तक मैं चलूँगा,
मैं तुम्हारे और दुनिया मध्य बनकर एक कड़ी हूँ
कौन तोड़ेगा मुझे मैं बिखरता ना टूटकर हूँ।