युद्ध के विरोध में दो कविताएँ / राजेन्द्र राजन
एक
हम चाहते हैं कि युद्ध न हों
मगर फ़ौजें रहें
ताकि वे एक दूसरे से ज़्यादा बर्बर
और सक्षम होती जाएँ कहर बरपाने में
हम चाहते हैं कि युद्ध न हों
मगर दुनिया हुक़ूमतों में बँटी रहे
जुटी रहे घृणा को महिमामण्डित करने में
हम चाहते हैं कि युद्ध न हों
मगर इस दुनिया को बदलना भी नहीं चाहते
हमारे जैसे लोग
भले चाहें कि युद्ध न हों
मगर युद्ध होंगे ।
दो
जो युद्ध के पक्ष में नहीं होंगे
उनका पक्ष नहीं सुना जाएगा
बमों और मिसाइलों के धमाकों में
आत्मा की पुकार नहीं सुनी जाएगी
धरती की धड़कन दबा दी जाएगी टैंकों के नीचे
सैनिक ख़र्च बढ़ाते जाने के विरोधी जो होंगे
देश को कमज़ोर करने के अपराधी वे होंगे
राष्ट्र की चिन्ता सबसे ज़्यादा उन्हें होगी
धृतराष्ट्र की तरह जो अन्धे होंगे
सारी दुनिया के झण्डे उनके हाथों में होंगे
जिनका अपराध बोध मर चुका होगा
वे वैज्ञानिक होंगे जो कम से कम मेहनत में
ज़्यादा से ज़्यादा अकाल मौतों की तरक़ीबें खोजेंगे
जो शान्तिप्रिय होंगे मूकदर्शक रहेंगे भला अगर चाहेंगे
जो रक्षा मन्त्रालयों को युद्ध मन्त्रालय कहेंगे
जो चीज़ों को सही-सही नाम देंगे
वे केवल अपनी मुसीबत बढ़ाएँगे
जो युद्ध की तैयारियों के लिए टैक्स नहीं देंगे
जेलों में ठूँस दिए जाएँगे
देशद्रोही कहे जाएँगे जो शासकों के पक्ष में नहीं आएँगे
उनके गुनाह माफ़ नहीं किए जाएँगे
सभ्यता उनके पास होगी
युद्ध का व्यापार जिनके हाथों में होगा
जिनके माथों पर विजय-तिलक होगा
वे भी कहीं सहमे हुए होंगे
जो वर्तमान के खुले मोर्चे पर होंगे उनसे ज़्यादा
बदनसीब वे होंगे जो गर्भ में छुपे होंगे
उनका कोई इलाज नहीं
जो पागल नहीं होंगे युद्ध में न घायल होंगे
केवल जिनका हृदय क्षत-विक्षत होगा ।