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युवक / भुवनेश्वर सिंह 'भुवन'

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हम गाण्डीव, गदा छी भीमक, हरक सुतीक्ष्ण त्रिशूल
चकमक चक्र सुदर्शन कृष्णक, कालक दण्ड अतूल।
हमर शक्ति लखि त्रिभुवन कंपित, सद्यः असुर डेराथि,
लक्ष्य विभेद होइछ नहि, पामर रणथल छोड़ि पड़ाथि।

हम छी सिंह शृगालक राज, दी गज कुम्भ विदारि,
मृग-शूकर जँ भरए चौकड़ी नरबी शेखी झाड़ि।
अछि अबाधगति हमर जगतमे फिरइत छी निर्द्वन्द्व,
छनमे लांघि लाइ सागर, वन, करत बाट के बन्द?

गर्वोन्नत गिरि सम्मुख आओत हएत स्वयं शतखण्ड,
महाशक्ति हमरामे सीमित, महिमा जनिक अखण्ड।
प्रलयानल हम, हमर ज्वालसँ पाप ताप जरि जाय,
दुर्बल छीनि बली आगाँसँ रोटी हँसि हँसि खाय।

स्वयं विघ्न हमरासँ शंकित के विघ्नक चट्टान,
सहत हमर की पदाघात ओ जे देखितहि हो म्लान?
हम छी वैह परशुधर, नरहरि, जनिका के नहि जान
मानिक मान राखि, अभिमानिक चूर्ण करी अभिमान

देखि सुनीतिक हत्या, छोड़ए रोम रोम अंगार,
जरए कुनीति, सजग हो साहस, सुनितहि दृढ़ हंुकार।
हम विभूति दी प्रकृति-पुरुषकेर जनिक न कहिओ अन्त,
हमर तेजसँ उद्भासित छथि रवि-शशि अओर दिगन्त।

महाकाल हम, प्रलय मचाबए हमरे ताण्डव नृत्य,
हो भूकम्प, बंक भू्र होइतहि जारी नाशक कृत्य।
हम साकार सत्य छी, सहचर शौर्य, सुदृढ़ संकल्प,
नूतन अछि सन्देश, करी जर्जर कायाकेर कल्प।

क्लान्ति श्रान्ति हमरा नहि व्यापए, सजग रही सदिकाल
माया-मोह हटाओल, तोड़ल दृढ़ भ्रमजाल।
जीवन-मृत्यु परिधिसँ बाहर, छी मृदु, परम कठोर,
अणु-अणुमे हम व्याप्त, हमर दृढ़ताक ओर नहि छोर।

हम सेवक छी दीन-दुखीकेर, कोमल मनसँ प्रीति,
काल दण्ड छोड़ी तकरापर करइछ जे अनरीति।
देखि दुखित पीड़ितकेँ हिअतल मोम जकाँ गलि जाए,
बिसरि जाइ सुधि-बुधि हम, तनिका कानी कंठ लगाए।

हमर प्रेम-वर्षासँ नाचए सत् हृदयक मन-मोर,
हमर न्यायप्रियतासँ काँपथि थरथर डाकू - चोर।
प्रलय गान सुनि हमर खलक दल बनल रहए भयभीत,
सज्जन जनसँ प्रीति जनाबथि सुनि प्रेमक संगीत।