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यूँ खिजिल होना न होता दोस्तो इंकार पर / शहरयार
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यूँ खिजिल होना न होता दोस्तो इंकार पर
कोई पाबंदी लगी होती अगर इज़हार पर
नाम अब तक दे न पाया इस तअल्लुक को कोई
जो मेरा दुश्मन है क्यों रोता है मेरी हार पर
धूप से बचने की कोशिश में कटेगी रात भर
कोई शक़ कर के तो देखे साया-ए-अशज़ार पर
शहर की जानिब न होने पाए सन्नाटों का रुख़
है मेरी आवाज़ राजी आज इस बेगार पर
बारिशें अनपढ़ थीं पिछले नक़्श सारे धो दिये
हाँ तेरी तस्वीर ज्यों की त्यों है दिल-दीवार पर।