यूं जीने का रोज भरम उघड़े / हरीश भादानी
रात-रात भर
निपट निगोड़े आखर जनना
होने की मजबूरी
किरणों का रंभाना सुन-सुन
सरकंडों की लाज ठेल कर
बोल-बोलते ये जा.....वो जा.....
यह उनकी मजबूरी,
मेरे जाये
मुझ तक तो वे लौटेंगे ही
आखा दिन हेराती आँखों
लौट रहे
हर एक सयाने का सपना उतरे
यूं जीने का.....
सुनूं अचानक
लोहे के जबड़े से छूटी
हू-हू करती हूंक,
सुनूं पड़ी, पड़ती जाए यूं
सड़सड़ाक कोड़े,
मगर न चीखे कोई, ना कोई कुरळाए
लगे, सांस में ठरा-ठरा
भीगा, खारा गुमसुम
कड़वाया गुमसुम,
हाथों से हम्फनी साधता देखे जाऊँ-
सुबह गए जो घुटरुन-घुटरुन
झलझल-झलमल से दिप दिपते,
वे ही हां वे मेरे आखर
तुड़े-मुझे सब आंगन आय पड़े
यूं जीने का.....
बाप सरीखा तरणाटी खा
अपने आपे से आ निकलूं,
नीली मेड़ी उतर-उतर कर भाग गई जो
सड़कों-गलियों,
पीछे-पीछे बोली होने को अतुराये
मेरे आखर,
वह भी तो लौटी ही होगी
जा पकडूं जो दिखे कहीं वह,
कोई नहीं....सिर्फ सन्नाटा.....
ऊपर था न,
कहां गया वह आसमान ही
दिखती केवल गीली स्याह कपास
एक अकेला दस-दस हाथों
चिथराता उतरे,
मेरे आंगन मेरे दिन की
ऐसी सांझ झरे,
आखर के सपनों का हर दिन
कलमष हो उतरे
यूं जीने का रोज भरम उघड़े ।