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यूं न देखा करो मुझे अपलक/वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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यूँ न देखा करो मुझे अपलक
दुनिया वालों को हो गया है शक
क्यों न हो आँधियों को हैरानी
अब भी रौशन है आस का दीपक
तुझसे अब क्या शिकायतें ऐ रात
सुन रहा हूँ मैं सुब्ह की दस्तक
कुछ भी हो नफ़रतों की दीमक से
रखना महफूज़ प्यार की पुस्तक
किसने दंगाइयों के नाम किये
राम, ईशू, रहीम, गुरू नानक
दिन की मंज़रकशी करें आओ
उनको रचने दो रात का रूपक
ऐ ‘अकेला’ ये कैसा नाटक है
वो ही नायक है वो ही खलनायक