भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यूटोपिया / अभिनव अरुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विन्ध्य की चोटियों पर खड़ा हो
अपनी दोनों बाहों को फैला
अगस्त्य सा कुछ पी सकता तो पी लेता
सारा का सारा गरल इस समष्टि का
सजी संवरी कृतियों की तह तक देख सकता तो देख लेता
हड्डियों पर चढ़ी मांस मज्जा की लिजलिजी परत
हां जिस मस्तिष्क पर गर्व है तुम्हें
वह बारीक नाड़ियों के गुच्छ के सिवाय और कुछ नहीं
ह्रदय की धमनियां तो अब बैटरी से भी चलने लगी हैं
तुम अब रिश्तों को चलाने वाली बैटरी बनाओ तो बात बने
ये नाड़ियाँ तो नख-आघात से भी लहू टपका देती हैं
नीले हरे दाग़ में तब्दील हो जाते हैं कोमल स्पर्श भी
ज्यों की त्यों चादर आज कौन धरता है
क्या सत्य क्या सनातन, न सिगरेट न धुआं
मजनू ने हज़ार पत्थर खाए उफ़ तक नहीं किया
बाज़ार प्रेम के प्रतीकों का व्यवसाय कर रहा
अफ़सोस तुम्हें ठगे जाने का अहसास तक नहीं
अच्छा है ग़ालिब ज़ुकरबर्ग के युग में नहीं हुए
वरना दीवान तो क्या कायदे के चंद अशआर के लाले पड़ जाते
बाज़ीचा ए अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे, ये तो ठीक
पर इस तमाशे पर कब्ज़ा ख़लीफ़ा का है
और उसकी नीमबाज़ आँखों में बिलकुल रहम नहीं
लाल - काले पान और ईंट
यहाँ तक कि चिड़ी का गुलाम भी उसी के पास
वक़्त के इक्कों से पंखा झलती हैं बेगमात
उसके ख़ुशबूदार सरहाने हर रात जिन्नात
हर मुराद पूरी करते हैं
निरंतर उतरती रहती हैं लाल पीली तस्वीरें बाज़ार में
भूतों का डेरा तो उठ चुका कबका
गहमर है गहमरी नहीं, न गाने वाले न लिखने वाले
अय्यारी के लिए आज गुफ़ाओं की ज़रूरत नहीं
क्रूरों के नवीन ठिकाने वातानुकूलित हैं और संस्कृति अनुकूलित भी
पांच तारा कीर्तन की कुटियों में
हर रात साधना रत कान्तायें
खजुराहो की मुद्राओं का अभ्यास करती हैं
करोड़ों का है कारोबार मुहब्बत के बाज़ार का
और आप खरबूज़े की फांक कटवाकर उसका रंग देख रहे
धिक्कार है टोटल नॉन-सेन्स