भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये आवाज़ें कुछ कहती हैं-2 / तुषार धवल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये झुण्ड से छूटे हिरण हैं हाशिये पर बिखरे हुए
यहाँ वहाँ बस पेट लिए भटकते हैं
स्वाद कोई पूछ ले जीवन का तो चुप हो जाएँगे
भटके हैं मरु मरु उजड़ी सतह पर गाँव की खलबल से शहर की चीख़ तक
नहीं जा पाए
फटे बुलबुलों में घर बसा कर कहीं भी
बेज़ार ही रहा जीवन का स्वाद उनसे
कुछ कहो तो सींग तान देंगे धँसा देंगे तुममें
वे जो असुरक्षित हैं

असुरक्षाओं की कोख से उगती है नफ़रत नफ़रत से हिंसा
हर साँस में हिस्सा छीनती
खारे लार से हड्डियों को गलाती
यह असुरक्षा है सदियों की सदियों से
हमारी चाह में व्यवधान ‘पर’ का

असन्तोष हो रहा है अराजक
और गवाह है सन्नाटा
गहरा जिसमें आवाज़ों के बुलबुले हैं
शोर है इतिहास का
राष्ट्र का
नकार एक समूची आबादी का
तुम्हें नकार कर ही राष्ट्र की सीमा तय होती है
हत्याएँ इसीलिए राष्ट्र धर्म हैं

ये छुपी हुई हत्याएँ हैं हर काल की
ये छुपी हुई तस्वीरें हैं सुनहरे युगों की
इनके करियाए भोथड़े माथों पर तिलक है इनकी म्यान में गज़नी की तलवार है इनके गैस चैम्बर का हिटलर चौकीदार है

चौकीदार है सन्नाटा प्रतिरोध के इन बुलबुलों का
जिनमें दबी फुसफुसाहट है बुलबुले हैं शोर के
ये आवाज़ें कुछ कहती हैं