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ये उलझ पड़ने की ख़ू अच्छी नहीं / वज़ीर अली 'सबा' लखनवी
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ये उलझ पड़ने की ख़ू अच्छी नहीं
बे-मुहाबा गुफ़्तगू अच्छी नहीं
मार डाला इश्तियाक़-ए-यार ने
इस क़दर भी आरज़ू अच्छी नहीं
झुक के मिल सब से ब-रंग-ए-शाख़-ए-गुल
सरकशी ऐ सर्व-ए-जू अच्छी नहीं
ख़ाना-ए-दिल की है रौनक़ इश्क़ से
ज़िंदगी बे-आरज़ू अच्छी नहीं
सख़्त बातों का तेरी क्या दें जवाब
बहस होनी दू-ब-दू अच्छी नहीं
तुझ से बेहतर है अँधेरी क़ब्र की
ऐ शब-ए-ग़म ख़ाक तू अच्छी नहीं
ऐ ‘सबा’ आवारगी से हाथ उठा
ख़ाक उड़ानी कू-बा-कू अच्छी नहीं