ये कविताएँ (राजेश जोशी) / प्रेमशंकर शुक्ल
प्रेमशंकर शुक्ल की यह कविता-श्रृंखला बड़ी झील को केन्द्र में रखकर जैसे उसके आसपास पानी का एक पूरा नगर ही तामीर कर देती है। वह बड़ी झील को पानी के एक ऐसे रूपक में बदल देती है जिसमें पानी की व्यापक चिन्ताएँ भी हैं और मन में बसी पानी की अनेक स्मृतियाँ भी।
भोपाल के नागरिक के लिए बड़ा तालाब जितना यथार्थ है उससे कहीं ज़्यादा वह उसका स्वप्न है। वह उसके बारे में तरह-तरह की किंवदन्तियाँ बनाता है, कहावतें रचता है और क़िस्से गढ़ता है। फिर अपने या अपने पूर्वजों द्वारा रचे किस्सों, कहावतों पर इस तरह यकीन करता है जैसे उन्हें किसी और ने रचा हो। उसके लिए इससे बड़ा और इससे ज़्यादा सुन्दर धरती पर कोई दूसरा तालाब नहीं है। उसके लिए तो इसके आगे सब तलैयाँ हैं। वह जब भी उसकी तुलना करना चाहता है तो उसे समुद्र से कम कुछ याद नहीं आता। इस तरह की अतिशयोक्तियाँ उसके सहज स्वभाव का हिस्सा नहीं, ये उसके और तालाब के बीच के आत्मिक सम्बन्ध का प्रतिफल है। पानी के प्रति आकर्षण नैसर्गिक आकर्षण है। बड़ा तालाब शहर का केन्द्र है। शहर की आत्मा या हृदय․․․ कुछ भी कहा जा सकता है।
कवि जब आहत होता है तो कविता का जन्म होता है। प्रेमशंकर शुक्ल भी बड़े तालाब के सूखने से आहत होते हैं और अचानक तालाब का यह दृश्य उनके लिए क्रौंचवध बन जाता है। मेरी याददाश्त में बड़े तालाब का इतना बड़ा हिस्सा कभी नहीं सूखा। भोपाल के इतिहास में सम्भवतः यह पहली घटना है जो 2009 में घटित हुई। प्रेमशंकर शुक्ल का कवि मन आहत हुआ और कविता का एक अबाध सिलसिला शुरू हो गया।
ये कविताएँ वस्तुतः तालाब के एक बड़े हिस्से के सूखने की वास्तविकता और स्वप्न में उसके लहराते हुए बिम्बों के युग्म से बनी हैं। इसमें झील से आने वाली हवाओं में कम होती नमी का अहसास है तो दूसरी ओर इस बात का भी कि झील ही देती है, मेरे भीतर के पानी को लहर। छोटी-बड़ी कविताओं की यह श्रृंखला एक कालखण्ड का कविता आख्यान रचती है। इसमें झील की स्मृतियाँ, सूख जाने का वृत्त्ाान्त है और पानी के बरसने के बाद झील के लहक उठने की ख़ुशी भी है। इसलिए इसका पेट भरने वाली कोलांस नदी की ख़ुशी भी इसमें दर्ज है। ये कविताएँ अक्सर अदीठ कर दिए जाने वाले कई छोटे-छोटे ब्यौरों को समेटती हैं। इन कविताओं में पानी की तरलता और बहाव दोनों हैं। कम शब्दों की नाव से यह एक बड़े विस्तार को नापने का उपक्रम है।